प्रस्तुती -अविरल
प्रकृति संतुलन की प्रक्रिया सृष्टि् के समर्पण परिसर तथा जीवो की परस्पर मजबूत अनुबंधो पर निर्भर करती है। जड़ चेतन के प्रत्येक पेड़ पौधे वनस्पतियां ऑक्सीजन जल प्रकाश तथा पशु पक्षी जीव जंतु मनुष्य सभी एक विराट जीवन चक्र के अभिन्न अंग है। परस्पर सबका एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। जड़ और चेतन के सहयोग से ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व कायम है ।पौधे मिट्टी से अपनी जड़ों द्वारा सांद्रता खींचते हैं हवा और रोशनी मुक्त हस्त से पौधों को अपना दान देती हैं। जिसे पीकर पौधे परिपोषित और विकसित होते हैं। तथा पशु और मनुष्य का वह आहार बनते हैं। गंदगी के रूप में विजातीय तत्व अंततः मिट्टी में मिलकर उसे उर्वरा बनाते हैं। पौधे के सूखे बीज फूल पत्तियां भी झडकर मिट्टी में गिरते रहते हैं। एक निश्चित समय के बाद प्राणी और पौधे दोनों ही जरा जीर्ण होकर मिट्टी में मिल जाते हैं| मिट्टी में नन्हे जीव जंतु और बैक्टीरिया अवशेष पदार्थों को खाते हैं तथा अंततः पौधों के लिए अपने मल मूत्र एवं मृत शरीर द्वारा खुराक तैयार करते हैं| मांसाहारी जीवो का भी एक स्वचालित स्वसंचालित चक्र चलता रहता है। जिन जीवो का बाहुल्य होता है वह दूसरों का आहार बनाते हैं उनकी अभिवृद्धि का नियंत्रण इकालॉजिकल चक्र के घटक जीव स्वयं करते हैं ।पक्षी कीड़े मकोड़े खाते रहते हैं तथा उनकी अनावश्यक वृद्धि पर नियंत्रण रखते हैं ।मेंढक मच्छर जैसे नंन्हे कीड़ों को खाता है और स्वयं भी सांप का ग्रास बन जाता है ।चूहों की वृद्धि बाज रोकता है, मोर का आहार सांप है ,शेर हिरण सूअर खरगोश आदि जंगली जीवो का भक्षण करता है यह एक मांसाहारी जीवो का चक्र है ।जिसमें एक मारता है और अंततः स्वयं भी मारा जाता है। मनुष्य इस जैविक चक्र के बाहर आता है उसका जीव समुदाय के स्वसंचालित चक्र में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए| परंतु मनुष्य द्वारा इस संतुलित चक्र को निरंतर भंग किए जाने के कारण कितने ही प्रकार के संकट प्रस्तुत होने की संभावना बन गई है| पक्षियों का शिकार इसी प्रकार होता रहा तो कुछ ही वर्षों में वनस्पतियों के लिए हानिकारक कीट मकोड़ों की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि होगी संभव है उससे वृक्ष वनस्पतियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। कितने ही पक्षी ऐसे भी होते हैं जो बीजों के वितरण अंकुरण में सहायक होते हैं। सर्पो को नष्ट कर देने से चूहों की मात्रा बढ़ जाएगी जो फसलों के लिए अत्यंत ही हानिकारक है ।हिंसक जीवो में शेर बाघ आदि को भी मारना इसलिए उचित नहीं है क्योकि वह भी संतुलन क्रम में अपने स्तर का सहयोग देते हैं। स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की दृष्टि से भी कितने ही जीवो की प्रकृति के परिसर में महत्वपूर्ण भूमिका है। गिद्ध चील गीदड़ मृत जीवो को खा कर गंदगी एवं महामारी फैलने से बचाते हैं| श्रमजीवी प्राणियों में तो गाय बैल भैंस घोड़े खच्चर आदि का असाधारण महत्व है जितना खाते हैं उसका हजार गुना अधिक मनुष्य जाति को लाभ पहुंचाते हैं जीवित हालत में उन्हे मांस चमड़े के लिए बूचड़खाने में भेज देना मानवी क्रूरता का ही परिचायक है ।शायद यह कहना उचित ही है कि प्राणियों के हनन से परोक्ष वातावरण विशुद्ध होता जा रहा है। जिसकी प्रक्रिया मनुष्य की घटती अंतर भाव संवेदनाओं के रूप में दिखाई पड़ रही है ।उजडती विखरती हुई मूक प्रकृति बुद्धिमान कहलाने वाले मनुष्यो से माँग कर रही है कि हमे अब और न सताया जाय ।हमे उजडने से न रोका गया तो आपका भी अस्तित्व सवाल के दायरे मे होगा क्योकि प्रकृति का उदघोष सूत्र" जियो और जीने दो है" ।
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