धनपतगंज। आधुनिक जीवन शैली ने गांव गिराव के हस्तशिल्पियों को जो दर्द दिया उससे कई समुदायो के सामने रोजी-रोटी का संकट कम होता नजर नहीं आ रहा है ।इसमें से एक समुदाय कुम्हार भी है। तीज त्योहारों के नजदीक आते ही बाजारों की ओर हसरत भरी निगाहों से टकटकी लगाने वाले इस समुदाय को बाजार की मांग और बड़े-बड़े यांत्रिक उद्योगों से इन्हें निराशा ही हाथ लगती है ।हाट बाजारों में इनके सामानों के खरीदार भी काम हो गए हैं। कुम्हार समुदाय के इस दर्द को साझा करने के लिये हमने मुलाकात की क्षेत्र के पीपर गांव निवासी 80वर्षीय भवानीप्रसाद(फक्कडी)प्रजापति से । तेजी से घूम रहे उम्मीदों की चाक पर अपनी हसरतों को माटी के सामानो के रुप मे आकार दे रहे फक्कड़ी ने निराशा भरे लहजे मे कहा कि बाबू ! अब इस पुस्तैनी माटी कला व्यवसाय का दम टूटै मा देर नाय बा, भैया आपन तीन पुस्त तो हमरी समझ मा गुजरी ,,न खेती ,न वारी ,बस यही माटी के सहारे परिवार के गाड़ी चलत रही। लेकिन अब जब से रेडीमेड सामान बाजार में आइगा, तब से वही का इस्तेमाल लोगै करा थे।सरकारौ दावा तो करा थै कि कोंहारन का सुविधा दी जा रही है, बाजार भी मिलेगी। लेकिन हम जैसे गांव के कोहार कवनउ सुविधा का लाभ नाही पाइत।
हमरे पंचन मे जे तनिक रुपया पैंसा से मजबूत अहैं उनही का साहब सूबा पूंछा थे। उनही लाभ लेत अहैं।
हम तो कामौ करत अही, तब्बौ क्यो पुंछत्तर नाय बाय। जान परत अहै कि ई हमार पुस्तैनी माटी कला हमरे साथेन हमरे परिवार से खतम होई जाये। कुम्हारों का यह दर्द समाज और लोगों के जीवन शैली मे क्या कभी संजीदगी पैदा कर पायेगा यह यक्ष प्रश्न से कम नही है।
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